Lekhika Ranchi

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शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की रचनाएंः देवदास--7

देवदास
भाग-7

मैस मे आकर देवदास अपनी चारपाई पर पड़ रहे। आजकल वे एक मैस मे रहते थे। कई दिन हुए, मामा का घर छोड़ दिया- वहां उन्हे कुछ असुविधाएं होती थी। जिस कमरे मे देवदास रहते है, उसी के बगल वाले कमरे में चुन्नीलाल नामक एक युवक आज नौ बरस से निवास करते है। उनका यह दीर्घ कलकत्ता-निवास बी.ए. पास करने के लिए हुआ था, किंतु आज तक सफल मनोरथ नही हो सके। यही कहकर वे अब यहां पर रहते है। चुन्नीलाल अपने दैनिक-कर्म-संध्या-भ्रमण के लिए बाहर निकले है।

लगभग भोर होने के समय फिर लौटेगे। बासा के और लोग भी अभी नही आये। नौकर दीपक जलाकर चला गया, देवदास किवाड़ लगाकर सो रहे।

धीरे-धीरे एक-एक करके सब लोग लौट आए। खाने के समय देवदास को बुलाया गया, किंतु वे उठे नही। चुन्नीलाल किसी दिन भी रात को लौटकर बासा मे नही आए थे, आज भी नही लौटे।

रात को एक बजे का समय हो गया। बासा मे देवदास को छोड़ कोई भी नही जागता है। चुन्नीलाल ने बासा मे लौटकर देवदास के कमरे के सामने खड़े होकर देखा, किवाड़ लगा है, किंतु चिराग जल रहा है, बुलाया- ‘देवादास, क्या अभी जागते हो?’ देवदास ने भीतर से कहा- ‘जागता हूं। तुम आज इस समय कैसे लौट आये?’

चेन्नीलाल ने थोड़ा हंसकर कहा- ‘देवदास, क्या एक बार किवाड़ खोल सकते हो?’

‘क्यो नही?’

‘तुम्हारे यहां तमाखू का प्रबंध है?’

‘हां, है।’ - कहकर देवदास ने किवाड़ खोल दिये। चुन्नीलाल ने तमाखू भरते-भरते कहा- ‘देवदास,

अभी तक क्यो जागते हो?’

‘क्या रोज-रोज नीद आती है?’

‘नही आती?’ कुछ उपहास करके कहा= ‘आज तक मै यही समझता था कि तुम्हारे जैसे भले लड़के ने आधी रात का कभी मुख न देखा होगा, किन्तु आज मुझे एक नयी शिक्षा मिली।’

देवदास ने कुछ नही कहा। चुन्नीलाल ने तमाखू पीते-पीते कहा= ‘तुम इस बार जब से अपने घर से यहां आये हो, तुम्हारी तबीयत ठीक नही रहती, तुम्हे कौन सा क्लेश है?’

देवदास अनमने से हो रहे थे। उन्होने कुछ जवाब नही दिया।

‘तबीयत अच्छी नही है?’

देवदास सहसा बिछौना से उठ बैठे। व्यग्र भाव से उनके मुख की ओर देखकर पूछा- ‘अच्छा चुन्नी बाबू, तुम्हारे हृदय मे किसी बात का क्लेश नही है?’

चुन्नीलाल ने हंसकर कहा- ‘कुछ नही।’‘जीवन पर्यन्त कभी क्लेश नही हुआ?’

‘यह क्यो पूछतो हो?’

‘मुझे सुनने की बड़ी इच्छा है।’

‘ऐसी बात है तो किसी दूसरे दिन सुनना।’

देवदास ने पूछा- ‘अच्छा चुन्नी, तुम सारी रात कहां रहते हो?’

चुन्नीलाल ने एक मीठी हंसी हंसकर कहा- ‘यह क्या तुम नही जानते?’

‘जानता हूं, लेकिन अच्छी तरह नही।’

चुन्नीलाल का मुंह उत्साह से उज्ज्वल हो उठा। इन सब आलोचनाओ मे और कुछ रहे या न रहे, किन्तु एक आंख की ओट की लज्जा रहती है। दीर्घ अभ्यास के दोष से वह चली गई। कौतुक से आंख मूंदकर पूछा- ‘देवदास यदि अच्छी तरह से जानना चाहते हो तो ठीक मेरी तरह बनना पड़ेगा। कल मेरे साथ चलोगे?’

देवदास ने कुछ सोचकर कहा- ‘सुनता हूं, वहां पर बड़ा मनोरंजन होता है। क्या यह सच है?’

‘बिल्कुल सच है।’

‘यदि ऐसी बात है तो मुझे एक बार ले चलो, मै भी चलूंगा।’

दूसरे दिन सन्ध्या के समय चुन्नीलाल ने देवदास के कमरे मे आकर देखा कि वे व्यस्त भाव से अपना सब माल-असबाब बांध-छान रहे है। विस्मित होकर पूछा- ‘क्या नही जाओगे?’

देवदास ने किसी ओर न देखकर कहा- ‘हां, जाऊंगा।’

‘तब यह सब क्या करते हो?’

‘जाने की तैयारी कर रहा हूं।’

चुन्नीलाल ने कुछ हंसकर सोचा, अच्छी तैयारी है! कहा - ‘क्या तुम सब घर-द्वार वहां पर उठा ले चलोगे?’

‘तब किसके पास छोड़ जाऊंगा?’

चुन्नीलाल समझ नही सके, कहा ‘मै अपनी चीज-वस्तु किसी पर छोड़ जाता हूं? सभी तो बासे मे पड़ी रहती है।’

देवदास ने सहसा सचेत होकर आंखे ऊपर को उठायी, लज्जित होकर कहा -चुन्नी बाबू, आज मै घर जा रहा हूं।

‘यह क्यो, कब आओगे?’

देवदास ने सिर हिलाकर कहा- ‘अब मै फिर नही आऊंगा।’

विस्मित होकर चुन्नीलाल उनके मुंह की ओर देखने लगे। देवदास ने कहा- ‘यह रुपये लो, मुझ पर जो कुछ उधार हो उसे इससे चुकती कर देना। यदि कुछ बचे तो दास-दासियो मे बांट देना। अब मै फिर कभी कलकत्ता नही लौटूंगा।’

देवदास मन-ही-मन कहने लगे- कलकत्ता आने से मेरा बड़ा खर्च पड़ा।

आज यौवन के कुहिराच्छन्न अंधेरे का उनकी दृष्टि भेद कर गई। वही उस दुर्दांत, दुर्विनीत कैशोर-कालीन अयाचित पद-दलित रत्न समस्त कलकत्ता की तुलना मे बहुत बड़ा, बहुत मूल्यवान जंचने लगा।

चुन्नीलाल के मुख की ओर देखकर कहा- ‘चुन्नी! शिक्षा, विद्या, बुद्धि, ज्ञान, उन्नति आदि जो कुछ है, सब सुख के लिए ही है। जिस तरह से चाहो, देखो, इन सबका अपने सुख के बढ़ाने को छोड़ और कोई प्रयोजन नही है।’

चुन्नीलाल ने बीच मे ही बात काटकर कहा- ‘तब क्या अब तुम लिखना-पढ़ना छोड़ दोगे?’

‘हां, लिखने-पढ़ने से मेरा बड़ा नुकसान हुआ। अगर मै पहले यह जानता कि इतने दिन मे इतना रुपया खर्च करके इतना ही सीख सकूंगा, तो मै कभी कलकत्ता का मुंह नही देखता।’

‘देवदास, तुम्हे क्या हो गया है?’

देवदास बैठकर सोचने लगे। कुछ देर बार कहा- ‘अगर फिर कभी भेट हुई तो सब बाते कहूंगा।’

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